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दान

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क्रिया

  1. किसी को कोई वस्तु, पैसा आदि बिना कुछ लिए देना।

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

दान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. देने का कार्य । जैसे, ऋणदान ।

२. लेनेवाले से बदले में कुछ न चाहकर या लेकर उदारतावश देने का कार्य । धर्म के भाव से देने की क्रिया । वह धर्मार्थ कर्म जिसमें श्रद्धा या दयापूर्वक दूसरे को धन आदि दिया जाता है । खैरात । क्रि॰ प्र॰—करना ।—देना । यो॰—कन्यादान । गोदान । दानपुन्य । दानदहेज । विशेष—स्मृतियों में दान के प्रकरण में अनेक बातों का विचार किया गया है । सबसे अधिक जोर दान ग्रहण कहे गए हैं । ब्राह्मणों में वेदपाठी, वेदपाठियों में वेदोक् त कर्म के कर्ता और उनमें भी शम, दम आदि से युक्त आत्म- ज्ञानी श्रेष्ठ हैं । दानों का विशेष विधान यज्ञ, श्राद्ध आदि कर्मों के पीछे हैं । इस प्रकार का दान अंधे, लूले, लँगडे़, गूँगे आदि विकलांगों को देने का निषेध है । दान के लिये दाता में श्रद्धा होनी चाहिए और उसे लेनेवाले से कुछ प्रयोजनसिद्धि की अपेक्षा न रखनी चाहिए । शुद्धितत्व में दान के छह अंग बतलाए गए हैं—दाता, प्रतिग्रहीता, श्रद्धा, धर्म देश और काल । दान के उत्तम और निकृष्ट होने का विचार इन छह अंगों के अनुसार होता है—अर्थात् दाता के विचार से (जैसे, श्वपच, कुलटा आदि का दिया हुआ), प्रतिग्रहीता के विचार से (जैसे, पतित ब्राह्मण को दिया हुआ), श्रद्धा के विचार से (जैसे, तिरस्कारपूर्वक दिया हुआ), देश के विचार से (जैसे, गंगा के तट पर दिया हुआ), और काल के विचार से (जैसे, ग्रहण के समय का ) । इनके अतिरिक्त द्रव्य का भी विचार किया जाता है कि जो धन दान में दिया जाय वह कैसा होना चाहिए । देवल ने लिखा है कि जो धन दूसरे को पीड़ित करके न प्राप्त हुआ हो, अपने परिश्रम से प्राप्त हुआ हो, वही दान के योग्य है । जिस प्रकार दान का फल कहा गया है, उसी प्रकार दान के त्याग का भी फल कहा गया है । याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि 'जो प्रतिग्रह में समर्थ अर्थात् दान लेने का पात्र होकर भी प्रतिग्रह नहीं लेता वह दानियों के जो स्वर्ग आदि लोक हैं उन सबको प्राप्त होता है' । इसी से बहुत से स्थानों के ब्राह्मण प्रतिग्रह कभी नहीं लेते । वेदों ओर स्मृतियों में कहे हुए दानों के अतिरिक्त ग्रहों की शांति आदि के लिये कुछ दान किए जाते हैं जिनका लेना बुरा समझा जाता है । इनमें शनैश्चर का दान सबसे बुरा समझा जाता है जिसमें तेल, लोहा, काला तिल, काला कपडा दिया जाता है । दान के विषय में संस्कृत में अनेक आचार्यों के अनेक ग्रंथ हैं ।

३. वह वस्तु जो दान में दी जाय ।

४. कर । महसूल । चुंगी । ठेंगा । उ॰— (क) तुम समरथ की वाम कहा काहू को करिहौ । चोरी जातीं बेचि दान सब दिन को भरिहौ ।—सूर (शब्द॰) । (ख) दानी भए नए माँगत दान सुने जु पै कंस तो बाँधिकै जैहौ ।—रसखान॰, पृ॰ २६ ।

५. राजनीति के चार उपायों में से एक । कुछ देकर शत्रु के विरुद्ध कार्यसाधन की नीति ।

६. हाथी का मद । उ॰—(क) रनित भृंग घंटावली झरत दान मधुनीर । मंद मंद आवत चल्यो कुंजर कुंज समीर ।—बिराही (शब्द॰) । (ख) सुरसरि में दिग्गज दान मलिन जलही भर, कंचन के कमलालय हुए तदीय सरोवर ।—महावीरप्रसाद (शब्द॰) । (ग) दान देन यौं शोभियत दीन नरनि के हाथ । दान सहित ज्यौं राजहीं मत्त गजन के माथ ।—केशव (शब्द॰) ।

७. छेदन । कर्तन । खंडन ।

८. शुद्धि ।

९. एक प्रकार का मधु ।

१०. रक्षण । पालन (को॰) ।

दान ^२ संज्ञा पुं॰ [फा़॰] पात्र । आधार । रखने की वस्तु । समा- सांत में, जैसे कलमदान ।

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